रविवार, 17 जुलाई 2016

नृत्य-साम

तेरे नर्तन को देख-देख
शब्दों ने नर्तन छोड़ दिया
जिह्वा तल पर, कविता ने भी
आना-जाना सब छोड़ दिया.


गेयता भूली कविता मेरी
तेरे गेयपद हो जाने से.
थिरता भी उसकी थिर ना रही
तेरे निश्चल हो जाने से.


कविता आकर्षण हीन हुई
पटुता पद-द्वय सम्मुख तेरे
रसता छोडी, तुम घूम-घूम कर
लगा रही रसवत घेरे.


हैं भिन्न बहुत ही कविता से
तेरे नयनों का 'छिपा भाव'
कविता यदि धारे गूढ़ भेष
त्रयगूढ़ करो तुम बिन छिपाव.


'कविता-गति'-सैन्धव यति लगाम
कविता को यति देती विराम.
तुम नृत्य करो सरपट-सरपट
जैसे सैन्धव दौड़े अवाम


कविता में चम्पू गद्य-पद्य 
मिलकर बनता जैसे ललाम
द्विगूढ़क  में नर-नारि सद्य
बन-बन करते हो नृत्य-साम.


[नृत्य-साम — लुभावना नृत्य/
(साम – गेय, मधुर, मीठी-मीठी बातों से वश में करने की विधि)]
[चम्पू — कविता के अंतर्गत गद्य-पद्य मिलकर बनी एक विधा]
[द्विगूढ़क — नृत्य शैली जिसमें नर और नारी परस्पर एक-दूसरे का अभिनय करने लगते हैं. ]
[त्रयगूढ़ — नृत्य शैली जिसमें स्त्री के वेश में पुरुष का नाच किया जाता है.]
[पद-द्वय — दो पाँव/
('पटुता पद-द्वय' मतलब दो पाँवों का कौशल मतलब नृत्य)]
[रसवत घेरे — तल्लीन होकर स्वयं में घूमना, नृत्य में पलटे/चक्कर खाना]
नृत्य की अन्य विशेषताएँ — गेयपद, निश्चलता.....]
[ललाम — सुन्दर, मनोहर]
[अवाम — जो टेड़ा न हो मतलब सीधा]