सोमवार, 23 मार्च 2015

काव्य-शिक्षा [आशु कविता – 5]

त्वरित कविता के विषय में विचार करते हुए इस सत्य को स्वीकार करने में दो मत नहीं होंगे कि "वास्तव में प्रतिभावान कवियों के लिए तो सभी मार्ग सुंदर-सुगम हैं और अप्रतिभावानों के लिए सभी स्थान दुर्गम।"

'नाट्यदर्पण' के रचयिता जैन आचार्य श्री रामचन्द्र और श्री गुणचन्द्र ने कहा है – "निर्धन से लेकर राजा तक के व्यवहार के औचित्य (कारणों) को जो नहीं जानते हैं और कवित्व की कामना भी करते हैं [अर्थात कवि बनना चाहते हैं] वे विद्वानों के उपहास (मनोरंजन के) पात्र बनते हैं। इस कारण विद्वता के साथ कवित्व आवश्यक है। कवित्व के बिना कोरा विद्वान लोक में न प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता है और न ही लोक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर सकता है।

"प्राणः कवित्वं विद्यानां लावण्यमिव योषिताम्।
त्रैविधवेदिनोsप्यस्मै ततो नित्यं कृतस्पृहाः॥

स्त्रियों के लावण्य के समान 'कवित्व' विद्याओं का प्राण रूप है। इसलिए त्रयी विद्या के जानने वाले [वेदों के विद्वान] भी इस [कवित्व की प्राप्ति] के लिए सदा उत्सुक रहते हैं।

इस बार एक आशु रचना 'रजनीश बिष्ट जी' की दे रहा हूँ :


"पुराना घर"

मैं ढक लेता हूँ
हर चीज़ जो
मेरे अंदर है
जो कि नाज़ुक है
जिसमें छुपी है
'कहानियाँ'
किस्से वाली
बचपन वाले पागलपन
वो ख़्वाब देखता
बच्चा
मैंने जज़्ब किया है
ज़िंदगियों को
मैंने देखा है
परिवार
जो जूझता रहा
हँसता रहा, रोता रहा
मेरे अंदर थी
पकवानों की खुशबू
जीवन के सब रंग
जन्म
मृत्यु
मेरे ही भीतर
बसे थे सपने
और एक दिन      
शायद वो समय
लौट आए।
पर मेरे ताला लगे
दरवाज़े में
जज़्ब है
बहुत-सा समय
यादें साथ लिए।


- रजनीश बिष्ट, दिल्ली