गुरुवार, 6 मार्च 2014

स्नेह ऋण - २

पिछले का शेष ... 

उर - सर स्वर यूँ 
निकला जैसे फूट पड़ी हो धारा 
शीतल जल की 
जिसमें छिपा हुआ था 
नेह - ऋण प्यारा 
"क्यों होते हो व्याकुल 
क्या रूठा है भाग्य तुम्हारा 
या फिर तुम भी यही चाहते 
हो निज पानी खारा 
एक बार तो आकर देखो 
मेरे अंतस में तुम 
सम्भवतः 
मिल जाए आपको 
हुआ आपसे जो गुम।"

मैंने सोचा - 
बड़ा बुरा है ऋण को लेकर जीना
कड़क शीत में डर के मारे 
कैसे आये पसीना 
नयन बंद कर डुबकी मारी 
थर - थर काँप गया मैं
उर - सर के हर कौने जाकर 
देख - देख हाँफा मैं 
बाहर आकर सर से बोला -
"तुमने मिथ्या बोला 
नहीं मिला मुझको  पिय का ऋण 
उर में धधके शोला। "
सरवर बोला -
"नहीं - नहीं मेरे वचनों में मिषता 
मुझमें ही आ छिपी हुई थी 
पिय - ऋण की अस्थिरता 
देखो! अपनी देह 
दीखती है धुंध - परी निकलती 
जाती है वापस 
पिया के पास हवा - सी उड़ती 
यही आपके पिय का ऋण है 
स्वयं जा रहा पिय के 
पास, जहाँ देनी है उसको 
पावनता पहचान। "

मैंने पूछा -
सरवर से 
"क्यूँ रहते शीतल हरदम 
रजनी आकर पास फहराती 
शीतलता का परचम
काँप - काँप जाता हूँ 
जब - जब देती पिया उधार 
कभी वक्ष से लगकर 
और कभी अधरों से प्यार 
पर उस कम्पन में मुझको 
शीतलता नहीं सताती 
पर सर में डुबकी लेने की 
सोच भी भय दिखलाती। "
 
सरवर बोला -
फँस जाओगे यदि लिया उधार 
और अंत में देना होगा 
सूद सहित ऋण - प्यार 
इससे तो मैं ही अच्छा हूँ 
मेरी शीतलता से 
आप बनोगे पाक 
बचोगे घोर वपु - निंदा से 
और यदि मिल जाता मुझमें
दूषित उर का प्यार 
उसका भी कर देता उर - सर 
प्यार सहित उद्धार 
और यदि ऐसे ही पिय से  
लेते रहे उधार 
ऋण भी पा जाएगा उस दिन 
बहुत अधिक विस्तार  
दब जाओगे बोझ तले तब 
प्राण रोएगा फबक - फबक कर 
दूषित हो मैं उबल पड़ूँगा 
कर बैठूँगा 
खर्च आपकी गुप्त निधि का 
हो जाओगे रंक आप 
अपने से ही जब 
मुझसे मिलकर पश्चाताप 
करोगे तब।