शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

याचना

मुषित आपके ही सारे
ष भाव हमारे कंटक में
सेही बन तुम करते बचाव
हिक निज मन को दे चकमे।

सायक बन बैठे भाव सभी
रि बनी आज कविता तरंग
द दलित हुए सपने मेरे
राका भर नाचा था अनंग।

नु लिए हाथ कटि में निषंग
हुत करा हृदय कर स्वप्न भंग
खेट हमारा करने को
तुर बना, पड़ा पीछे अनंग।

ध्या! मनुहार करूँ तुमसे
क्षत कर दो कवि का वचन भंग
मादकता मय सारे विचार
र्तक नयनों से करो नंग।

हीं हीं करता है हास स्वयं
र्षक संयम पर डाल पंक
जगुणी हो गई वाक् कलम
पातक मन को दे कौन अंक ?

, सतोगुणी सम सुधा सवसे!
गेही समान आचरण स्वयं
पारस स्पर्श कर दो कलाचि
मैं स्वर्ण बनूँ, हों पाप अलम।
 

1 टिप्पणी:

Asha Joglekar ने कहा…

मैं स्वर्ण बनूं हो पाप अलम, बहुत सुंदर।