सोमवार, 28 जनवरी 2013

दुःस्वप्न

निशा आधी नग्न होकर
मेरी शैया के किनारे
आई सुधा-मग्न होकर
लिए नयनों में नज़ारे।
 
आँख के तारे नचाकर
अनुराग से पाणि बढ़ाकर
कर लिया मेरा आलिंगन
बिन हया ही मुस्कुराकर।
 
मैं विमर्ष से निशीथ में
निस्पंद, नीरव नेह को
किस तरह कर दूँ निराहत?
विदग्ध तृषित देह को।
 
श्वास में मिलती मलय-सी
अनिल, तन से फूटती है
कर रही मदमत्त मुझको
प्यार पाकर झूमती है।
 
श्याम अंबर चीर देखा
दीपिका ने क्रोध से तब
निशा भागी, निमिष मुकुलित
किये मैंने, लाल था नभ।