सोमवार, 17 सितंबर 2012

मीत-पिता

ओ मीत पिता, दो मुझे बता
क्या दोष प्रीत में है मेरे?
क्यूँ नहीं पास आने देते
सविता को, अब भी घन घेरे.
मन मीत कल्पनाओं में आ
लिख देती हृत पर प्रेम-लेख.
फिर हृदय चुरा लेती मेरा
वह प्रेम लेख न सकूँ देख.
प्रतिकार आपसे लूँगा मैं
करवा तुमको अपराध-बोध.
मेरे औ' मेरे मीत बीच
शंका करके क्यूँ किया शोध?
कामुक कराल कहकर तुमने
मुझपर डाली है पंक-छींट.
उस पर भी हैं कुछ छींट गये
जो था श्रद्धा का हृत-किरीट.
शललित वचनों की शरशय्या
जिस पर लेटा हूँ निरपराध.
शश दे तुमने अपमान किया
मेरे यश में बन गया बाध.
मैं खुद को दंडित करने की
लेता हूँ निष्ठुर आज़ शपथ
मेरी पावनता बनी रहे
तुम भी हो जावोगे अवगत.
हीनोडुराज अम्बर तल में
शश पाकर भी ना हुआ हीन.
शोभा शशीश बनकर सर की
अस्थिर यश को भी किया पीन.
हूँ तोड़ रहा संबंध मीत
जोडूँगा अब संबंध मौन.
उदघाटित भी होगा तो तुम
पाओगे बस 'बहना' अमौन.