गुरुवार, 21 जून 2012

प्रयत अंतर में पतित विचार...

आचार्य परशुराम राय जी का इस बार का पाठ यहाँ http://manojiofs.blogspot.in/2012/06/116.html पढ़कर जानिये....कि काव्य में किन परिस्थितयों में अश्लील दोष भी गुण हो जाता है.
और वह शृंगार 'रस' के घर में न जाकर 'रसाभास' की दीवारें लांघता हुआ दिखायी देता है.



अरी अप्सरे अनल अवदात
शिथिल कर देने वाली वात
आपके अंगों का आकार
ध्यान आते ही गिरता धात।
देख तेरे मनमोहक प्रोत
नयन बन गये हमारे श्रोत
लिपटते हैं तन-चन्दन जान
सर्प, सुन्दरता का पा स्रोत।
आपको डसने को तैयार
नयन, लिपटे करते फुत्कार
किन्तु भ्रम में 'अहि-तिय-अहिवात'
स्वयं का कर लेते संहार।
लगाने को तत्पर है घात
तुम्हारे तन पर मेरा गात
विदारित* कर कदली-उरु खंभ
पतित मन में पल गया पलाद*।
कभी था मन पावन मर्याद*
स्वयं संयम था मैं अपवाद
देख मेरा यौवन अम्लान
मीनकेतन* भी खाता मात।
न जाये कब मन में उत्पात
मचाने लगा मदन मनजात*
अग्र उसके मद माया मोह
सैन्य दल था नासीर* अराति।
काकघर में कोकिल परजात*
कपट से पलते सदा विजाति.
प्रयत अंतर में पतित विचार
मदन-पिक द्वारा घुसे सयात*।
अरी गणिके, तुमने निज ओज
अम्ल जाना, चाटा कर भोज
कुष्ठ हो गया लिया परियात*
गोधिका गृह की लगती खोज।