गुरुवार, 31 मई 2012

स्वप्न सुन्दर वल्लभा

पलकों तले मेरे बसा एक स्वप्न था.
जिसमें थी सोती एक सुन्दर वल्लभा.
लावण्य की सारी निधि उस पर ही थी.
वह स्वयं थी लेटे हुए निधि द्वार पर.
पुष्प-शैया पुष्प-कण से थी विभूषित.
पुष्प-वृष्टि हो रही पलकों तले नित.
स्वप्न-जग में घूमती वह देखकर यह.
हाथ में है हाथ पिय का साथ में वह.
जा रही पिय के सह झूलन को झूला.
पिय, पिया-स्पर्श से अपने को भूला.
झूलने आ पहुँचे उर-सर के तीरे.
महकते पुष्कल खिले थे पद्म-नीरे*.
निज जीवन-वृक्ष पर झूले पड़े थे.
पेंग देते ही स्पंदित वृक्ष होते.
झूलकर वे चल दिये उर-सर किनारे.
पग बढ़ाते तट-तटी पर शीतलारे.
अस्त होते देख दिनकर लालिमारे.
कुछ समय बैठे थके तट पिय-पियारे.
बैठ तट पर देख खिलती सित कुमुदिनी.
ले रही पिय शीतलाई भरनि तंबी.
पी उसका पी रहा स्नेह-नीर सर में.
औ' उर को कर दिया स्नेह-रिक्त क्षण में.
तभी .... वे आँख से ओझल निशा में हो गये..
हाय, निज नयन बहुत व्याकुल हुए.
पलकें करों से मसलता मैं नित उठा.
पर उठ न पाती स्वप्न सुन्दर वल्लभा.
_________________
* नीरे = नियरे, नेड़े, पास में