गुरुवार, 17 मई 2012

हे अंध निशा, गूंगी-बहरी !

हे अंध निशा, गूंगी-बहरी !
मत देखों निज पीड़ा गहरी.
तेरी दृष्टि पड़ते ही खिल
उठती है हिय में रत-लहरी.
न बोलो तुम, मृदु हास करो
चन्दा किरणों सह रास करो
तुम सन्नाटे के साँय-साँय
शब्दों पर मत विश्वास करो.
हे मंद-मंद चलने वाली,
तम-पद-चिह्नों की अनुगामी !
पौं फटने से पहले जल्दी
प्रिय-तम से मिल लेना, कामी !