सोमवार, 27 अगस्त 2012

कविता

पहली बार जब आईं तुम
मेरी जिह्वा अपरिचित थी.
ना बैठाया मैंने तुमको
ना जाना था तुम जीवन हो.
 
पय पीकर भी तरसते थे
पीने को स्नेह-नीर अधर.
तुम अधरों तक आईं किन्तु
मैंने अज्ञ बन विदा किया.
 
तुम मेरे सह हँसी खेली
मुझको निज मीत बनाकर
लोय-लोर शैशव के तुमने
सुखा दिये लोरी गाकर.
 
वय-संधि में अचानक ही
तुम भूल गईं लोरी गाना.
चंचल बन तुमने शुरू किया
मुझे प्रेम-गीत सुनाना.
 
 

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

आपका नाम

द्वार पर शुक बैठा-बैठा
राम का नाम लिया करता.

दिया था जो तुमने उपहार
वही है उसका कारागार
बद्ध करना उसका विस्तार
कहाँ तक किया उचित व्यवहार.

द्वार पर शुक बैठा-बैठा
काल की बाट जुहा करता.

रूठता प्राणों से पवमान
देह जाने को है श्मसान
आपका बहुत किया सम्मान
नेह का होता है अवसान.

द्वार पर शुक बैठा-बैठा
आपको कोसा है करता.

किया जब मैंने उसको मुक्त
जगा जैसे युग से हो सुप्त
किया मेरा उसने जयनाद
द्वार पर स्वयं हुआ नियुक्त.

द्वार पर शुक बैठा-बैठा
आपका नाम लिया करता.

शनिवार, 4 अगस्त 2012

न्यायकारी की भेद दृष्टि

ओ न्यायकारि परमेश्वर !
तू न्याय एक सा तो कर
उर्वरा और ऊसर पर
वर्षण करके न चुपकर!!

उर्वरा पे है हरियाली
ऊसर की गोदी खाली
ये न्याय तुम्हारा कैसा!
दोनों के तुम हो माली!!

ये भेद दृष्टि अनुचित है
ऊसर में भी संचित है
अंकुरित करन की इच्छा
पर रोध हुआ किञ्चित है.

कैसे भी उसे हटाओ
तुम जिस भी रस्ते आओ
मैं तुझे पा सकूँ ईश्वर!
कुछ चमत्कार दिखलाओ!!

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न्यायकारि = न्यायकारी