शुक्रवार, 29 जून 2012

पुत्री-प्रेम

पिता-पुत्री का प्रेम कैसा हो?.... इस कविता में एक रूपक के माध्यम से बताना चाहा है.
 
जाने क्या फिर सोच घटा के पास चला मारुत आया.
केशों में अंगुलियाँ डाल फिर धीरे-धीरे सहलाया.
सुप्त घटा थी जगने वाली दूज पहर होने आया.
कोस रहा मारुत अपने को क्यूँ कल वो अंधड़ लाया.
थकी पड़ी थी आज़ घटा-तनया तन-मुख था कुम्हलाया.
करनी पर अपनी मारुत तब देख उसे था पछताया.
खुला प्राचि का द्वार जगाने था बालक सूरज आया.
'जागो-जागो हुआ सवेरा' पीछे से कलरव आया.
उठी घटा तब मारुत ने चूमा छाती से चिपकाया.
'क्षमा करो बेटी मुझको मैंने तुमको कल दौड़ाया.
'नहीं पिताजी नहीं, आप तो दौड़ रहे थे नीचे ही.
मैं तो ऊपर थी, पाने को साथ तुम्हारा दौड़ रही.' [गीत]
 
[बेटी 'अमृता' के लिए]
 

बुधवार, 27 जून 2012

हृदय का संस्कार

क्या अब भी उतना ही प्रगाढ़
मुझसे करते हो प्रेम प्रिये !
जितना पहले करते अपार
दश शतक विरह दिन बीत लिये.
आयी थी कभी, याद मुझको
अपने यौवन में प्रेम बाढ़.
तुम बहे, परन्तु धीर बना
मैं अनचाहे लेता बिगाड़.
क्यूँ करता ऐसा नहीं समझ
आया मुझको अब तक छिपाव.
होते थे पास-पास लेकिन
प्रकटित होने देता न भाव.
हैं गोपनीय मन भाव सभी
बन गये हृदय के संस्कार.
अब चाहे भी ना कर सकता
उद्घाटित मैं उनका विकार.
खिल पुण्डरीक पंकिल जल में
महिमा बढ़ती सर की अपार.
थे गुप्त दुष्ट मन के विकार
उनसे निकले सुन्दर विचार.

गुरुवार, 21 जून 2012

प्रयत अंतर में पतित विचार...

आचार्य परशुराम राय जी का इस बार का पाठ यहाँ http://manojiofs.blogspot.in/2012/06/116.html पढ़कर जानिये....कि काव्य में किन परिस्थितयों में अश्लील दोष भी गुण हो जाता है.
और वह शृंगार 'रस' के घर में न जाकर 'रसाभास' की दीवारें लांघता हुआ दिखायी देता है.



अरी अप्सरे अनल अवदात
शिथिल कर देने वाली वात
आपके अंगों का आकार
ध्यान आते ही गिरता धात।
देख तेरे मनमोहक प्रोत
नयन बन गये हमारे श्रोत
लिपटते हैं तन-चन्दन जान
सर्प, सुन्दरता का पा स्रोत।
आपको डसने को तैयार
नयन, लिपटे करते फुत्कार
किन्तु भ्रम में 'अहि-तिय-अहिवात'
स्वयं का कर लेते संहार।
लगाने को तत्पर है घात
तुम्हारे तन पर मेरा गात
विदारित* कर कदली-उरु खंभ
पतित मन में पल गया पलाद*।
कभी था मन पावन मर्याद*
स्वयं संयम था मैं अपवाद
देख मेरा यौवन अम्लान
मीनकेतन* भी खाता मात।
न जाये कब मन में उत्पात
मचाने लगा मदन मनजात*
अग्र उसके मद माया मोह
सैन्य दल था नासीर* अराति।
काकघर में कोकिल परजात*
कपट से पलते सदा विजाति.
प्रयत अंतर में पतित विचार
मदन-पिक द्वारा घुसे सयात*।
अरी गणिके, तुमने निज ओज
अम्ल जाना, चाटा कर भोज
कुष्ठ हो गया लिया परियात*
गोधिका गृह की लगती खोज।

गुरुवार, 14 जून 2012

सुदृश्य

पलकें मेरी लपक लेतीं
प्रत्येक मोहक चित्र को
पल में लपकतीं पलक गिरते
स्वप्न के सुदृश्य को.
हैं बहुत से सुदृश्य ऐसे,
नित आते नयन पट पर.
पट खोलते दर्शन कराते
लौट जाते उसी पथ पर.
वे जब न आते, छोड़ जाते
राह में पलकें बिछाना
कठिन हो जाता तब मेरी
पलक से पल का मिलाना.

[मेरे विद्यार्थी जीवन की पहली शृंगारिक रचना, मार्च 1989]

शुक्रवार, 8 जून 2012

उड़ रहे हृदय में दो विमान

उड़ रहे हृदय में दो विमान*
सपनों का ईंधन* ले-लेकर.
वे जाल फैंकते हैं विशाल
बंदी करने पिय-उर बेघर.
पिय का उर पर हर बार बचा
छोटा था जाल छविजाल तुल.
शर छोड़ रहे दोनों विमान
पुष्पित करने हृदयस्थ-मुकुल.
पर नयन-बाण सम्मुख सब शर
अपनी लघुता को दिखा रहे.
निश्चल नयनों के चपल बाण
रण-कौशल अब तो सिखा रहे.
चख लिया पराजय का जब मुख
तब नहीं हुआ किञ्चित भी दुःख
दोनों विमान चक्कर खाते
नीचे गिरते करते 'सुख-सुख'.
________________________
दो विमान --- कल्पना और आकर्षण
सपनों का ईंधन ---- उड़ान भरने के लिये आवश्यक ऊर्जा
पिय-उर बेघर ---- पिय का हृदय अपने ठिकाने पर नहीं, इसलिये बेघर कहा.
छविजाल --- सौन्दर्य
तुल ---- तुलना में