गुरुवार, 31 मई 2012

स्वप्न सुन्दर वल्लभा

पलकों तले मेरे बसा एक स्वप्न था.
जिसमें थी सोती एक सुन्दर वल्लभा.
लावण्य की सारी निधि उस पर ही थी.
वह स्वयं थी लेटे हुए निधि द्वार पर.
पुष्प-शैया पुष्प-कण से थी विभूषित.
पुष्प-वृष्टि हो रही पलकों तले नित.
स्वप्न-जग में घूमती वह देखकर यह.
हाथ में है हाथ पिय का साथ में वह.
जा रही पिय के सह झूलन को झूला.
पिय, पिया-स्पर्श से अपने को भूला.
झूलने आ पहुँचे उर-सर के तीरे.
महकते पुष्कल खिले थे पद्म-नीरे*.
निज जीवन-वृक्ष पर झूले पड़े थे.
पेंग देते ही स्पंदित वृक्ष होते.
झूलकर वे चल दिये उर-सर किनारे.
पग बढ़ाते तट-तटी पर शीतलारे.
अस्त होते देख दिनकर लालिमारे.
कुछ समय बैठे थके तट पिय-पियारे.
बैठ तट पर देख खिलती सित कुमुदिनी.
ले रही पिय शीतलाई भरनि तंबी.
पी उसका पी रहा स्नेह-नीर सर में.
औ' उर को कर दिया स्नेह-रिक्त क्षण में.
तभी .... वे आँख से ओझल निशा में हो गये..
हाय, निज नयन बहुत व्याकुल हुए.
पलकें करों से मसलता मैं नित उठा.
पर उठ न पाती स्वप्न सुन्दर वल्लभा.
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* नीरे = नियरे, नेड़े, पास में

मंगलवार, 29 मई 2012

मैं दर्शनों को ही किराया मानता

है निज उर में, बहुत खाली जगह
एक क्या, अनेक बस सकते यहाँ.
रुक क्यों गये, इत आते हुए तुम
क्या कहीं ओर भी है घर, इस उर के सिवा?
न लूँगा आपसे, कुछ भी किराया
दे दूँगा अपितु, स्नेहिल संपदा.
जो है अभी भी, उर में इकट्ठी
उसको व्यय करना, चाहे शृंगार में ही.
क्या कहा? यहाँ पर आना कठिन है
और बाद में जाना भी मुश्किल.
स्नेह धन को लेना गुनाह है.
तो कहिये - आसान क्या, निर्दोष क्या है?
बिन किये तुम बात मुझसे, चल पड़े.
क्या यही होता आश्रितों का धर्म है?
ये जानकर भी 'है सभी सुविधा यहाँ'
मैं दर्शनों को ही किराया मानता.

सोमवार, 21 मई 2012

मेरा विराग

बस में बिलकुल भी नहीं धार
बह रही हृदय से जो अपार
राशि-रत्नों की हुई क्षेम*
जो आया था वो गया प्रेम.
रस में निमग्न आनंद-धाम
को जाऊँगा होकर अवाम.
हो राग-द्वेष से दूर, काम
में लाकर पूरा मैं विराम.
ममता माया मोह मध्य धार
में डूबेगी होकर विकार
लाएगा सिन्धु जब भी ज्वार
ला देगा उनको फिर उभार.
नव रूप समन्वित होकर वे
धारेंगे सर पर अरुण पाग.
अपना अस्तित्व मिटाकर वे
बन जायेंगे मेरा विराग.
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बस में = वश में
क्षेम = सुरक्षित, सलामत 

गुरुवार, 17 मई 2012

हे अंध निशा, गूंगी-बहरी !

हे अंध निशा, गूंगी-बहरी !
मत देखों निज पीड़ा गहरी.
तेरी दृष्टि पड़ते ही खिल
उठती है हिय में रत-लहरी.
न बोलो तुम, मृदु हास करो
चन्दा किरणों सह रास करो
तुम सन्नाटे के साँय-साँय
शब्दों पर मत विश्वास करो.
हे मंद-मंद चलने वाली,
तम-पद-चिह्नों की अनुगामी !
पौं फटने से पहले जल्दी
प्रिय-तम से मिल लेना, कामी !

सोमवार, 7 मई 2012

तुलना

नव मीन-निलय में विलय हुए
सित सरिता के सारे सुभाव.
सब सूख गये सरिता तीरे
नंदन-वन तन के हरे घाव.
नव मीत मिले निश-तिमिर नगर
नयनाभिराम नय के नरेश.
उर-सर में करते हैं नूतन
सृष्टि का फिर से वे प्रवेश.
ऋतु उन्मीलन कर रही, छोड़
जाने से पहले कर मरोड़.
नासीर भाँति कर के समूह
की उर-सर में आयी हिलोर.
जल्दी-जल्दी पिक अमी भाँति
कानों में मिश्री रहा घोल.
कहता कवि से - "है कंठ कहाँ?
अब कर लो दोनों यहीं तोल ?"

शनिवार, 5 मई 2012

मुझे संदेह

हो रहा है मुझको संदेह
आप क्यों करते मुझसे नेह
आपका नित आना-जाना
देखता है ऊपर से मेह.
आप पीते थे अमृत पेय
नेह था सदा आपको देय
अरे अब विष का क्योंकर पान
किया करते हो नेह से हेय.
पलक पूरित आखें पलभर
आपको कर जाती थीं गेय
किन्तु जबसे त्यागा तुमने
लाज का वसन, मुझे संदेह !

शुक्रवार, 4 मई 2012

सुन्दर शाप

रहा करता हूँ सबसे दूर
मिलन फिर भी होता भरपूर
जिन्हें मैं आने से रोकूँ
वही घुसते आँखों में घूर.
जहाँ जाता हूँ सारे साथ
चले आते हैं वे चुपचाप
भोर दिन संध्या हो या रात
निरंतर देते सुन्दर शाप.
दिवा में यादों का ले रूप
सोच को ले जाते हैं दूर
रात में स्वप्नलोक का कूप
घुमा लाते हैं मद में चूर.

गुरुवार, 3 मई 2012

भानु-भामिनी

वियत श्याम घन की प्रतूलिका
पर लेटी पिय भानु-भामिनी
सोच रही बदला लूँगी मैं,
अभ्यागत जो बनी यामिनी.
नित वसुधा के रसिक मनों पर
कंज खिला कंदर्प साथ में
नंग अंग को किये हुए वह
नाचा करती अंध रात में.
मैं देखूँगी द्विज-दर्पण से
दर्पक सह निर्लज्ज यामिनी.
क्या मेरे प्रियतम कवि की भी
बनना चाहे तिया, कामिनी.
शब्दार्थ :
वियत - आकाश; प्रतूलिका - गद्दा; अभ्यागत - अतिथि;
भामिनी - क्रोधोन्मत्त स्त्री; यामिनी - रात्रि; कंज - कमल;
कंदर्प - कामदेव; अंध -गहन; दर्पक - कामदेव/ अभिमानी;
द्विज-दर्पण - चन्द्रमा रूपी दर्पण; तिया - स्त्री/पत्नी.

बुधवार, 2 मई 2012

आपका खेल

काव्य भी रहा आपका खेल
रुलाया पहले अपनी गेल
सोचकर दो घूँसों को झेल
निकालेगा कविता का तेल.
गुजरी है मेरे भावों की
अरथी, हिय में जैसे कि रेल
चली जाती हो नीरव में
उलझती आपस में ज्यूँ बेल.
भाग्य ने भी ऐसा ही खेल
आज़ खेला है मेरी गेल.
प्रभो! अब क्या होगा कैसे
करूँगा मैं कविता से मेल.

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गेल = गैल 

मंगलवार, 1 मई 2012

मुझसे तुम घृणा करो चाहे

मुझसे तुम घृणा करो चाहे
चाहे अपशब्द कहो जितने.
मैं मौन रहूँ, स्वीकार करूँ
तुम दो जो तुमसे सके बने.

मुझपर तो श्रद्धा बची शेष
बदले में करता वही पेश.
छोड़ो अथवा स्वीकार करो
चाहे ममत्व का करो लेश.

मुझको अभाव में रहने की
पड़ गई पुरानी आदत है.
मर चुकी प्रेम की तृषा ह्रदय
पाया ममत्व भी आहत है.

कवि पास कल्पना है अपनी
सब कुछ अभाव में देती है.
माँ बहिन प्रेमिका बन करके
वह मुक्त मुझे कर लेती है.

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