सोमवार, 26 मार्च 2012

मुझको हर मौसम लगे भला

जब ह्रदय के उद्गार घनीभूत होकर व्यक्त हों तब काव्य अत्यन्त प्रभावशाली बन जाता है। विद्वता जब सरलता में प्रकट होती है तब वह कविता-सी मधुर हो जाती है।

पतझड़ में थे सब झड़े पात
मैने पूछा क्या हुयी बात
वे बिलख-बिलख कर बोले यूँ
पीड़ा की गठरी खोली यूँ
मैने डाली से प्यार किया
डाली ने मुझको त्याग दिया
फिर भी मैं गया नहीं कहीं
सोचा बनकर मैं खाद यहीं
अपना कर्तव्य निभाऊँगा
जड़ को अपना कण-कण अर्पित
कर, पल्लव फिर बन आऊँगा
अपने विवेक को सूक्ष्म करो
मत करो प्रतुल! प्रथुल उसको
हठ के आगे मत हो अस्थिर
कुछ योग करो हो जाओ थिर
उनको पतझड़ से मोह बड़ा
मुझको हर मौसम लगे भला
अब कैसे मैं समझाऊँ उन्हें
कर दूर कोप, बिहंसाऊँ उन्हें
उनसे कहना,सन्देश मेरा
अब नष्ट करें कंटक घेरा
फिर दृष्टि नेक पीछे डालें
मैं खड़ा वहीं आँखें खोले
है कोई उनका शत्रु नहीं
कटुता है उनकी मित्र नहीं
अनुराग सदा अनुरागी है
लगता यद्यपि कुछ बागी है
सब करते प्रेम उन्हें जी भर
कह दो उनसे भर लें आँचल॥
- कौशलेन्द्र जी


इससे श्रेष्ठ मार्गदर्शन नहीं हो सकता। कौशलेन्द्र जी ने 'विलगाव' के दर्शन को जितनी सुन्दर अभिव्यक्ति दी उतना ही उचित उन्होंने उपचार भी किया। वे न मात्र आयुर्वेद के चिकित्साधिकारी हैं, अपितु काव्य से मिली व्याधियों के अनिष्ट निवारण हेतु उपयुक्त काव्य-चिकित्सा भी देते हैं।

5 टिप्‍पणियां:

Shekhar Suman ने कहा…

सच ही लिखा है, हर मौसम प्यारा होता है... हर मौसम का अपना महत्व है.... पढवाने का बहुत बहुत धन्यवाद.... :)

Kailash Sharma ने कहा…

अनुराग सदा अनुरागी है
लगता यद्यपि कुछ बागी है
सब करते प्रेम उन्हें जी भर
कह दो उनसे भर लें आँचल॥

बहुत सुंदर और भावमयी रचना...आभार

रविकर ने कहा…

जी बढ़िया ।

अच्छे भाव ।।

पहले भी पढ़ा
अब पोस्ट के रूप में ।
अत्यंत प्रभावी ।
शल्यक्रिया करने में सक्षम ।।

सुज्ञ ने कहा…

कुशल काव्य-चिकित्सा
विकार हटाने में कुशल!!

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

पतझड़ में थे सब झड़े पात
मैने पूछा क्या हुयी बात
वे बिलख-बिलख कर बोले यूँ
पीड़ा की गठरी खोली यूँ
मैने डाली से प्यार किया
डाली ने मुझको त्याग दिया
फिर भी मैं गया नहीं कहीं
सोचा बनकर मैं खाद यहीं
अपना कर्तव्य निभाऊँगा
जड़ को अपना कण-कण अर्पित
कर, पल्लव फिर बन आऊँगा
...बेहतरीन। झड़े पात नव पल्लव बन सजे हैं आज चहुँ ओर।