सोमवार, 26 दिसंबर 2011

वंचना

मैं सुप्त लुप्त था अपने से 
शैया पर दृग अंचल करके 
सहसा पिय ने स्पर्श किया 
पलकों पर, आई हूँ सजके 
लाई हूँ शीतलता तन में 
अब मुक्त करो नयनों को तुम 
कह बैठ गयी वह शिरोधाम 
शैया पर निज, होकर अवाम.

मैं सिहर उठा यह सोच-सोच 
अनदेखे ही पिय मुख सरोज 
अधरों का वार कपोलों पर 
अब होगा, लोचन बंद किये 
मैं पड़ा रहा इस आशा में 
बाहों के बंधन से बँधकर 
क्या उठा लिया जाऊँगा अब.

जब सोचे जैसा नहीं हुआ 
पलकों का द्वारा खोल दिया
पिय नहीं, अरे वह पिय जैसी 
दिखती थी केवल अंगों से. 
मैं समझा, पलकें स्वयं झुकीं 
वह आ बैठी बेढंगों से. 

पर पिय तो मेरी स्वीया सी 
जो नित प्रातः करती अर्चन
चरणों पर आकर आभा से 
कर नयन मुक्त, करती नर्तन.
जो आई थी लेकर दर्शन
झट हुआ रूप का परिवर्तन.
वो! सचमुच में थी विभावरी
थी उदबोधित*-सी निशाचरी.

नेह को न छल सकता छल भी 
चाहे छल में कितना बल भी 
हो न सकता उर हरण कभी 
क्योंकि निज उर तो पिय पर ही.
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* उदबोधिता = एक नायिका जो पर-पुरुष के प्रेम दिखलाने पर उस पर मुग्ध होती है.

[आवृत काव्य — रचनाकाल : १७ फरवरी १९९१]