रविवार, 17 अप्रैल 2011

छंद निष्ठुर नहीं होता

आवरण - १ 


अग्र से नील, पृष्ठ से पीत 
हरित आभा देते बन मीत.
श्याम रंजित लघु लघु लघु छींट.
लगी हो लू को जैसे शीत. 

इंदु-मुख पर शश-तिल का अंक 
नयन लेटे पल के पर्यंक. 
कमर केहरि जैसी कृश, काल 
ग्रसित लगते इंदु चख लंक. 

पहले छंद का मात्रिक विधान कुछ ऐसे किया जाएगा : 
राजभा गाल, राजभा गाल* = 8 + 8 = 16
नसल मातारा भानस गाल = 16
राजभा नसल नसल सलगाल = 16
यमाता मातारा ताराज = 16

[*ध्यान दें : कभी-कभी किसी पंक्ति का मात्रिक विधान तो बिल्कुल सही होता है लेकिन फिर भी उस पंक्ति की छंद कविता की गेयता ख़त्म हो जाती है. ऐसे में गण-विधान अपनी मुख-सुविधा के अनुसार किया जाना ठीक रहता है. जैसे हमने कविता की पहली पंक्ति का मात्रिक-विधान तो कर लिया लेकिन उसका गण-विधान "राजभा राजभा यमाता ल" न करके उसे दो खण्डों में बाँट कर किया "राजभा गाल, राजभा गाल" मतलब "अग्र से नील, पृष्ठ से पीत" पंक्ति के मध्य आये 'अर्धविराम' के अनुसार उसका गण-विधान भी किया. इस बात से मेरा तात्पर्य यह है कि हमें छंद में 'गीति तत्व' को अहमियत देनी होती है. दूसरी बात, मात्रिक विधान के चक्कर में मन का आनंद नष्ट नहीं करना चाहिए. 'छंद' मन के उन्मुक्त भावों को बाँधने का उपक्रम अवश्य करता है किन्तु वह इतना निष्ठुर भी नहीं कि कोमलतम भावों को अपनी वैधानिक-रज्जु से कुचलकर रख दे.] 

वरिष्ठों के लिये : 
प्रश्न : दूसरे छंद का मात्रिक विधान कैसे किया जाएगा? 

कनिष्ठों के लिये :
प्रश्न : 'पर्यंक' कितनी मात्राओं का शब्द है? 

[नोट : विद्यार्थी अपनी इच्छा से दोनों प्रश्न का उत्तर भी दे सकते हैं.