मंगलवार, 31 मई 2011

'गप-गप-गप'

मेरी उर क्यारी में उगते
तरह-तरह के नव पादप.
जिसे देखकर हर्षित रहता
प्रेम निरंतर 'टप-टप-टप'.

कोई प्रतिदिन पुष्प दिखाता
कोई महीनों करता तप.*
गुणग्राहक समभाव हमारा
स्मृतियों में सामूहिक जप.

कोई चुल्लू भर ही पीता

कोई दिनभर गप-गप-गप.
बिना पुष्प वाले पादप को
करता हूँ ना 'हप-हप-हप'.*

कोई सदाबहारी पादप
कोई साधक बना विटप.*
सबके अपने-अपने गुण हैं
नयनों में सब जाते छप.

_________________________
* उपर्युक्त 'विषम मात्रिक' छंद में (पहली तारांकित पंक्ति में) एक मात्रा अधिक है लेकिन वह ''मात्रिक-विधान'
[कोई मासिक करता तप] से अधिक उपयुक्त लग रहा है. क्यों?
* हप-हप-हप — अपने से छोटे या प्रिय को प्रेमपूर्वक फटकार लगाने का भावयुक्त शब्द.
* विटप — पौधे का बड़ा रूप 'पेड़', जो छाँव देने योग्य हो जाये. साधकों से साक्षात कोई मीठा फ़ल बेशक न मिलता हो किन्तु उनकी अनुभवपरक छाँव में हमारे तमाम तनाव विलीन हो जाते हैं. कई दुर्लभ ऐसे भी होते हैं जो फ़ल भी देते हैं और छाँव भी... सभी का महत्व है... कम-ज्यादा आँक कर उनकी क्षमताओं में हीन-भावना नहीं डालनी चाहिए.
छंद विषयक़ चर्चा का कहीं अंत नहीं. फिर भी किसी पाठ को देने से पहले एक तैयारी होनी चाहिए. उस तैयारी के लिये मनःस्थिति से अधिक महत्वपूर्ण शंका-समाधान और विमर्श के लिये स्वयं को अविलम्ब झोंकना  होता है..उसके लिए अभी परिस्थितियाँ  उपयुक्त नहीं मिल पा रही हैं. छंद की पुस्तकीय सामग्री को जब तक अपने भावों का आवरण न पहना दूँ - कैसे कहूँ?  

गुरुवार, 26 मई 2011

विषैला आलिंगन

श्वासों का हो गया समन्वय 
हृदय अनल के घेरे में 
हो ढूँढ रहा था शीतलता-आलंबन।  

अनिल दौड़ता होकर निर्भय
गरम-गरम श्वासों का चलना 
जला रहा था हृदय का नंदन-वन। 

शीत्कार की ध्वनि, संकुचित 
भविष्य-द्वार, होता पर-शोषित 
कसी जा रही थी बाहों की जकड़न।  

संयम था आश्चर्य चकित 
निज पाक अनल में डाल दिया 
किसने चोरी से विषैला आलिंगन। 

कंदर्प-रति षड़यंत्र सफल 
कर, मुस्काते जाते ध्वनि करते 
निज हाथों से करतल, अन्तस्तल। 

संयम ने फिर जाल बिछाया 
काम रती* को दंड दिलाकर 
जोड़ दिया दुर्बल मर्यादा बंधन, ... क्रन्दन!!  
__________
*रती = सही शब्द रति

प्रश्न : उपयुक्त कविता किस कोटि की रचना कही जानी चाहिए ?
— शुद्ध शृङ्गार
— शृङ्गार रसाभास 
— शान्त रस 
— शान्त रसाभास 

रविवार, 22 मई 2011

'हाँ' 'नहीं' मगर...

ओ प्रकृति प्रेमि, प्रियतमे अंक! 
मुझको सबसे प्रिय लगे पंक.
खिलता उसमें से ही सरोज
रमणीक वारि भी हुआ रंक. 

ओ ग़ज़ल प्रिये, गज गमन चली! 
मुझको कविता ही लगे भली. 
चलती निज कविता तुरग चाल 
भूलोगी चलना ग़ज़ल-गली. 

चन्दन सुगंध लेने वाली ! 
मेरी पसंद लिपटी व्याली. 
व्याली पसंद आनंद गंध 
आनंद गंध सबसे आली. 

संयाव आपका मधुर भोज 
पायस भोजों में महा भोज. 
घृत मूल मिला इसमें रहता 
पय देख याद आता पयोज. 

"किसका स्पर्श सबसे सुन्दर?" 
ये प्रश्न आपको विचलित कर 
क्यूँ गया, मुझे संकोच हुआ 
"क्या है समीर?".. 'हाँ' नहीं' मगर.
________
शब्दार्थ : 
वारि - जल
व्याली - नागिन
पायस - खीर 
संयाव - हलवा

मंगलवार, 17 मई 2011

छंद चर्चा .............. पाठ ४ ........ प्रत्यय विचार

अब तक आपने 'प्रत्यय' का अर्थ suffix के रूप में ही जाना होगा और मैंने भी व्याकरण अध्ययन के समय उपसर्ग के साथ  इससे पहचान की थी. किन्तु जब छंद-ज्ञान करने को पुस्तकों के बीच घूमा तो इसके एकाधिक अर्थ-रूपों से परिचय हुआ. प्रत्यय अर्थात ज्ञान, बुद्धि, विश्वास, शपथ, प्रमाण, रूप-निश्चय. किन्तु छंदों के भेद और उनकी संख्याएँ जानने की रीति भी प्रत्यय कहलाती है. 

प्रत्यय के अन्य अर्थ हैं : सम्मति, निर्णय, चिह्न, आवश्यकता, व्याख्या, विचार, आचार, प्रसिद्धि, कारण, हेतु, छिद्र, सहायक, स्वाद. 

एक शब्द के इतने सारे अर्थ जानने के बाद मन में प्रश्न उठता है कि एक शब्द के विविध अर्थ कैसे संभव हैं? या, एक शब्द में से अनेक अर्थ कैसे निकल पड़ते हैं? 

प्रत्यय का लक्षण – प्रत्यय का अर्थ है ज्ञान. ज्ञान के साधन को भी प्रत्यय कह सकते हैं. इस दृष्टि से छंद-शास्त्र में प्रत्यय उस  विधा को कहेंगे जो छंद-भेद संख्या आदि का विस्तृत ज्ञान कराये. 

"जिन साधनों से छंदों के भेद, उनकी संख्या तथा उनके पृथक्-पृथक् रूप आदि का बोध हो, उन्हें प्रत्यय कहते हैं." 

छंद-विधा का विशद ज्ञान कराने वाले साधन अर्थात प्रत्यय नौ हैं : 

१] प्रस्तार, २] सूची, ३] नष्ट, ४] उद्दिष्ट, ५] पाताल, ६] मेरु, ७] खंड-मेरु, ८] पताका, और ९] मर्कटी. 

प्रस्तार — शब्दार्थ द्वारा ही प्रस्तार का अभिप्राय स्पष्ट होता है. [विस्तार अथवा फैलाव]

"जिस साधन से यह ज्ञात हो कि किसी जाति के किस छंद का कितनी संख्या तक और किन-किन रूपों में फैलाव हो सकता है, उसे 'प्रस्तार' कहते हैं." 

प्रस्तार का आधार अंकगणित की वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मूल और निर्दिष्ट संख्याओं के आकलन के द्वारा उनके संभाव्य समाहारों का ज्ञान होता है. छंदों का मूल आधार 'वर्ण' एवं 'मात्रा' है, तदनुसार प्रस्तार के दो भेद हैं – 
[१] वर्ण प्रस्तार और [२] मात्रा प्रस्तार 

[१] वर्ण प्रस्तार : 
जिस साधन के द्वारा वार्णिक छंदों की किसी जाति के भेदों का स्वरुप ज्ञात किया जाये, वह वर्ण-प्रस्तार कहलाता है.
उदाहरण : 
(क़) दो वर्णों की (अत्युक्ता) जाति का प्रस्तार — 
संख्या ......................... रूप 
.. 1 .............................. S S
.. 2 .............................. I S
.. 3 .............................. S I
.. 4 .............................. I I                                        
इस प्रकार दो वर्णों की जाति में कुल चार छंद बन सकते हैं. 

पहला छंद : 
[ S S ]
आओ 
बैठो 
खाओ 
लेटो 
सोना 
चाहो 
सो लो 
सेठो! 

दूसरा छंद : 
[ I S ] 
जु ड़ा
हुआ 
गवाँ
दिया.... ..............मतलब  पूँजी 
जु ड़ा 
हुआ 
विदा 
किया. ................ मतलब सम्बन्ध.
जु ड़ा 
हुआ
तु ड़ा 
लिया. .................. मतलब बँटवारा पैत्रिक संपत्ति का. 

जु ड़ा
हुआ.
जु ड़ा 
दिखा. ................ मतलब जो भी एक बार टूट कर जुड़ता है तो उसमें गाँठ पड़ी दिखायी देती ही है. 

तीसरा छंद : 
[ S I ]
राम 
नाम 
सत्य 
होत. 
सत्य  
नाम 
गत्य 
होत. 

राम 
नाम 
बीज 
बोत.
राम 
नाम 
खेत 
जोत.

या फिर 
दोस्त 
दोस्त 
ना र 
हा पि 
यार
प्यार 
ना र 
हा.......... ये पंक्ति भी अतियुक्ता जाति के छंद की ध्वनि लिए है.  

चौथा छंद : 
[ I I ]
तन
मन 
धन 
सब 
ऋण 
कर. 

तिल 
भर 
सुख 
दुःख  
तृण
कर. 

... इस अजीबोगरीब कविताई से मैंने केवल यह बताना चाहा है कि छंद केवल कुछ शब्दों का समुच्चय मात्र नहीं है वह किसी इकलौते शब्द में भी निहित हो सकता है. बस उस शब्द में यदि कहने वाला आनंद प्रविष्ट कर दे तो वह छंद हो जाता है. एक सरल उदाहरण से कहता हूँ : 
कभी-कभी कवि या गीतकार कोई रचना करता है... पढ़ने में बिलकुल नीरस होती है.. किन्तु संगीत की समझ वाला गायक उसे गाता है तो वह गेय हो  जाता है. लता जी ने ऎसी कई रचनाओं को गाकर गीत की श्रेणी में ला दिया जो पढ़ने पर नीरसता लिये थे. 

कुछ रचनाओं का द्रुतम पाठ उन्हें गेयता दे देता है तो कुछ रचनाओं का विलंबित/ अति विलंबित पाठ उन्हें मधुरम गीत की श्रेणी में ला देता है. और कुछ का पाठ वाकयंत्र के विविध आयामी प्रयोग से उत्कृष्ट हो जाता है. 
मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि छंद की सभी जातियों का परिचय अति साधारण तरीके से करा सकूँ. इस बार प्रत्यय के केवल वर्ण-प्रस्तार में अत्युक्ति जाति के छंद को बताने की कोशिश की है.


शनिवार, 14 मई 2011

सुख की बेटी

दसन-वसन फैला करके 
शयन कर रही थी लेटी. 
शरमा बैठी जब वसन हटे
तन-दंत दिखे कटि की पेटी. 

कर घेर छिपाने को आईं 
दिहली पर खड़ी हुईं चेटी. 
नवसू कहलायेगी जल्दी
होरिल जनकर सुख की बेटी. 

रतनार कपोल भये उसके 
हेरम्ब-कथन निकला कपटी. 
हैं दीप-नयन जलते उसके
रीझेगा फिर से आस बँधी. 
________________
दसन-वसन — दाँतों के कपड़े 
तन-दंत — शरीर रूपी दाँत 
कटि की पेटी — दाँतों की कमर की पेटी अर्थात मसूडे. 
दिहली —  दहलीज
दिहली पर खड़ी हुईं चेटी से तात्पर्य ... मुख पर खड़ी हुई दासियाँ अर्थात मुस्कुराने से कपोलों पर पड़ी रेखाएँ.
नवसू — नवप्रसूता, 'हँसने वाली' से तात्पर्य  
होरिल — नवजात शिशु, 'हँसी' से तात्पर्य 
सुख की बेटी — मुस्कान
हेरम्ब-कथन — धीरोद्धत नायक की भाँति धोखेबाजी, चपलता और लम्पटता गुणों से युक्त कथन [जो मुस्कान को गर्भवती कर छिपकर भाग गया]

शनिवार, 7 मई 2011

छंद-चर्चा ................... पाठ-३


पिछले पाठों में हम छंद-विषयक कुछ महत्वपूर्ण बातें छोड़ कर आगे बढ़ आये थे और पहले उन बातों को पूरा कर लेते हैं... छंद में लय-युक्त प्रवाह का होना बेहद आवश्यक है. इसी 'गीति-प्रवाह' को गति कहते हैं. 

एक कविता कहता हूँ, उसका गीति-प्रवाह देखिएगा... मैं यदि कविवरश्रेष्ठ राजेन्द्र स्वर्णकार जी की तरह ऑडियो पोस्ट से जोड़ने का ज्ञान रखता तो अवश्य गाकर इसे आपको उपलब्ध कराता.. क्योंकि मेरी अधिकांश कवितायें गेय हैं. मुक्त-छंद में लिखी कविताओं का पाठ भी एक विशेष प्रकार की गीति की अपेक्षा रखता है. उसमें प्रायः विचारों की अभिव्यक्ति स्वर के उतार-चढ़ाव पर निर्भर करती है. 

कविता का शीर्षक है : 'मरण-विचार'

विनय अर्चन या..चना व्यर्थ। 
कलम सर्जन* सो..चना व्यर्थ। 
नुपुर नर्तन शो..भना व्यर्थ।  
नहीं इनका अब कोई अर्थ।  

कथन पिय का घू..मना व्यर्थ।  
मिलन उन का झू..लना व्यर्थ।  
सुमन चुनना चू..मना व्यर्थ।  
नहीं इनका अब कोई अर्थ।  

नयन पलकें झप..कना व्यर्थ।
रुदन आँसू टप..कना व्यर्थ।
भवन उनके पहुँ..चना व्यर्थ।
नहीं इनका अब कोई अर्थ।

दिया उनको जो उन..के अर्थ। 
लिखा उस पर जो, क्या था अर्थ?
अभी तक है मुझको वो याद। 
हमारे बीच रही जो शर्त। 

शिखर पर तुम हो मैं हूँ गर्त।  
विनय करता पर मिला अनर्थ। 
याद कर कर तेरी हो गया।    
विरह में मैं आधे से अर्ध।  

मिलन कुछ पल का विरह अपार। 
यही मुझको देता है मार।  
बिना उनके निज नयन अनाथ।  
बची दो ही आँखें हों चार।  

कपट करना उनका व्यापार।  
लिपट जाना उनका उदगार।  
मरण तो अब जीवन के लिये 
जरूरी-सा बन गया विचार। 
मरण तो अब जीवन के लिये 
जरूरी-सा बन गया विचार। 
___________
* सर्जन = सही शब्द सृजन 


दग्धाक्षर : गणों की ही तरह कुछ वर्ण भी अशुभ माने गये हैं, जिन्हें 'दग्धाक्षर' कहा जाता है.
कुल उन्नीस दग्धाक्षर हैं — ट, ठ, ढ, ण, प, फ़, ब, भ, म, ङ्, ञ,  त, थ, झ, र, ल, व, ष,  ह। 
— इन उन्नीस वर्णों का पद्य के आरम्भ में प्रयोग वर्जित है. इनमें से भी झ, ह, र, भ, ष — ये पाँच वर्ण विशेष रूप से त्याज्य माने गये हैं. 
छंदशास्त्री इन दग्धाक्षरों की काट का उपाय [परिहार] भी बताते हैं. 
परिहार : कई विशेष स्थितियों में अशुभ गणों अथवा दग्धाक्षरों का प्रयोग त्याज्य नहीं रहता. यदि मंगल-सूचक अथवा देवतावाचक शब्द से किसी पद्य का आरम्भ हो तो दोष-परिहार हो जाता है.

उदाहरण : 
गणेश जी का ध्यान कर, अर्चन कर लो आज़.
निष्कंटक सब मिलेगा, मूल साथ में ब्याज. 
इस दोहे के आरम्भ में ज-गणात्मक शब्द [121] है जो अशुभ माना गया है किन्तु देव-वंदना के कारण इसकी अशुभता का परिहार हो गया है. 

प्रश्न : क्या छंदशास्त्रीयों के अनुसार 'मरण-विचार' नामक कविता अशुभ वर्ण आरंभी है? 
प्रश्न : 'दग्धाक्षर' का अन्य कल्पित अर्थ बतायें, क्या हो सकता है? क्यों छंद-शास्त्री दग्धाक्षर से इतना घबराया करते थे? 
प्रश्न : क्या स्वरों का हमारे स्वास्थ्य पर अच्छा-बुरा प्रभाव पड़ता है? 

पिछली कक्षा में 'भाषा-विज्ञान' विषय भी हमने शामिल कर लिया था. इस बार केवल एक कारण को खोलकर बता देते हैं कि कोई शब्द धीरे-धीरे क्योंकर अपना उच्चारण या रूप बदल लेता है. 
[१] वाक् यन्त्र की विभिन्नता : विश्व के प्रत्येक मनुष्य की शारीरिक रचना जिस प्रकार भिन्न-भिन्न है, उसी प्रकार उनका वाक्-यन्त्र भी एक-दूसरे से थोड़ा-बहुत जरूर भिन्न मिलेगा. परिणामस्वरूप वाक्-यन्त्र से उच्चरित ध्वनियों में भी अंतर पड़ जाता है. एक ही ध्वनि का स्वरुप एक व्यक्ति के उच्चारण में जैसा होगा वैसा दूसरे के उच्चारण में नहीं मिलेगा. शुरू-शुरू का यह थोड़ा अंतर धीरे-धीरे बढ़कर पूर्णतया बदल जाता है. सभी भाषा वैज्ञानिक इस कारण को अभी अधिक तवज्जो नहीं देते...

प्रश्न : भाषा वैज्ञानिक किसे कहते हैं? 
ऑप्शन : 
— जो भाषा में तरह-तरह के देसी-विदेशी शब्दों को शामिल करने की कोशिश करे. 
— जो भाषा को एरोप्लेन में बैठाकर अंतरिक्ष की सैर कराकर लाये.
— जो भाषा के विकास पर तार्किक चिंतन दे. 
— जो भाषा का आदिम रूप खोजने में जुटा रहे. 

बुधवार, 4 मई 2011

कपोल-लली

खिलने में हो लावण्य भंग
दिखने में सबको लगे भली। 
पिय दर्शन से रतनार रंग
हो जाता कनक-कपोल-लली*

नत नयन मंद मुस्कानों की
अवगुंठन की कहलाति अली**
पुरुषों के भ्रमर-लोचनों को
लगती रसदार कपोल-कली । 

*कपोल-लली — लज्जा.
**अली — सखी.