गुरुवार, 31 मार्च 2011

नूतन-प्राची संवाद

"तुम कहाँ छोड़ आये शरीर 
मैं लेकर आयी हूँ अबीर 
ओ प्राची! मैं नूतन अद्या 
तुमसे सुनने आयी कबीर."

"ओ चंचल नूतन अधुनातन! 
मैं त्याग चुका अपना शरीर 
अब तुमसे आशा करता हूँ 
दिव बनो करो तम हरण चीर. 

मैं प्राची तो तुमसे ही हूँ 
तुम जब चाहो कर दो फ़कीर. 
तुम चाहो तो हम मिलें सदा 
ना चाहो तो, होवूँ अधीर."

मंगलवार, 29 मार्च 2011

छंद-चर्चा ...... पाठ 1

किसी रचना के प्रत्येक पाद में मात्राओं अथवा वर्णों की नियत संख्या, क्रम-योजना एवं यति के विशेष विधान पर आधारित नियम को छंद कहते हैं. 

छंद के विभिन्न अंग —
चरण : छंद की उस इकाई को पाद अथवा चरण कहते हैं जिसमें छंद विशेष के वर्णों अथवा मात्राओं का एक सुनिश्चित नियोजन होता है.

वर्ण : मुख से निःसृत प्रत्येक उस छोटी-छोटी ध्वनि को वर्ण या अक्षर कहते हैं, जिसके खंड नहीं हो सकते. 

मात्रा (परिमाण) :  वर्णों के उच्चारण में लगने वाले समय को 'मात्रा' कहते हैं. विनती यही गोपाल हमारी. हरौ आज़ संकट-तम भारी. [गुपाल का उच्चारण किया जाने से हृस्व स्वर चिह्नित किया जाएगा, अन्यथा चौपाई में पहले ही चरण में सत्रह मात्रा हो जाने से लय दोष पैदा हो जाएगा ]

क्रम : किसी छंद के प्रत्येक चरण में वर्णों या मात्राओं का एक निश्चित अनुपात से प्रयोग 'क्रम' कहलाता है.

छंद के अंतर्गत 'क्रम का महत्व निम्नलिखित उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा - 
जहाँ सुमति वहँ सम्पति नाना, जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना

यह चौपाई छंद का उदाहरण है, जिसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राओं का नियम है. इस चौपाई के अंतिम दोनों वर्ण दीर्घ हैं. किन्तु इसी उदाहरण को यदि यों कहा जाये – 
जहाँ सुमति वहाँ सम्पति नान, जहाँ कुमति तहाँ विपति निदान

यद्यपि इसमें मात्रा संख्या १६ ही हैं, तथापि इसे चौपाई छंद का शुद्ध प्रयोग नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसके अंत में 'दीर्घ' और 'हृस्व' का क्रम होने के कारण इसकी स्वाभाविक गति में व्यवधान पड़ता है. इसीलिए छंद शास्त्रकारों ने चौपाई छंद का लक्षण बताते हुए स्पष्ट किया है कि इसके अंत में 'जगण' अर्थात हृस्व-दीर्घ-हृस्व [लघु-गुरु-लघु] मतलब [ISI] का क्रम नहीं होना चाहिए. 

यति : छंद में जो एक प्रकार की संगीतात्मकता रहती है, उसका कारण ध्वनियों का आरोह-अवरोह होता है. ध्वनियों के इस आरोह-अवरोह (उतार-चढ़ाव) का आधार बीच-भीच में रुक-रूककर ऊँचा या नीचा बोलना होता है. छंद के प्रत्येक पाद में यथावश्यक विराम की योजना भी इसीलिए रहनी आवश्यक है. इसी विराम योजना को 'यति' कहते हैं. 

गति : छंद में लय-युक्त प्रवाह का होना आवश्यक है. इसी 'गीति-प्रवाह' को गति कहते हैं. 

छंद के अंतर्गत नवोदित आभ्यासिक कवियों को लघु-गुरु का परिचय आवश्यक है. 
गणों को सहज-स्मरणीय बनाने के लिये एक अन्य संक्षिप्त सूत्र भी प्रचलित है – 
"य मा ता रा ज भा न स ल गा"

गण-परिचय — 
गण : तीन-तीन वर्णों के विशेष समूह को गण कहते हैं.  
गण संख्या : आठ प्रकार हैं.
सर्व गुरु — SSS [म गण] .....मातारा 
आदि गुरु — SII [भ गण] .... .भानस
मध्य गुरु — ISI [ज गण] .....जभान
अंत गुरु —  IIS [स गण] ......सलगा
सर्व लघु — III [न गण] .........नसल 
आदि लघु — ISS [य गण] ....यमाता
मध्य लघु — SIS [र गण] .... राजभा 
अंत लघु — SSI [त गण] ......ताराज 

मैं एक रचना की 'छंद कविता' लिखता हूँ विद्यार्थी गण उसका वाचन करके देखें, क्या उन्हें रस मिला? 

छंद कविता  

राजभा नसल यमाता गाल 
राजभा मातारा ताराज 
यमाता सलगा मातारा ल 
राजभा सलगा मातारा ल.

नसल मातारा सलगा गाल 
यमाता भानस सलगा गाल 
राजभा भानस भानस गाल 
यमाता सलगा मातारा ल. 

जभान यमाता सलगा गाल 
जभान यमाता सलगा गाल
जभान जभान यमाता गाल 
यमाता भानस मातारा ल. 

यमाता सलगा सलगा गाल 
राजभा सलगा सलगा गाल 
जभान यमाता मातारा ल 
राजभा जभान  मातारा ल. 


शब्द कविता  

पारिभाषित करने को आज़ 
सम्प्रदायों में होती जंग. 
मतों का पहनाने को ताज 
धर्म को करते हैं वे नंग. 

धर्म को आती सबसे लाज 
छिपाता है वह अपने अंग.
सोचता था पहले कर राज 
रहूँगा सबके ही मैं संग. 

रखा करते जो उसकी लाज 
वही नर-नारी करते तंग. 
विदूषक के वसनों से साज 
चलाते हैं उसको बेढंग. 

अँधेरी नगरी तम का राज 
ईश की करनी करती दंग. 
मिला तमचारियों को ताज 
धर्म हो गया भिखारी-लंग. 


यदि आप छंद कविता को गा पाते हैं और प्रवाह में कहीं व्यवधान नहीं पाते. तब आपकी रचना गेयता की कसौटी पर खरी है. और यदि उसमें कुछ व्यवधान पाते हैं तब उसे दूर करने का उपाय करें. 

प्रश्न 1 : यदि उपर्युक्त कविता की अंतिम पंक्ति में 'धर्म हो गया भिखारी-लंग' के स्थान पर ' धर्म बन गया आज़ भिखमंग' कर दिया होता तब मुझे क्या परेशानी हो सकती थी? सोचिये.

प्रश्न २ : चार पंक्ति की कोई एक छंद कविता रचें और उसपर शब्दों का अभ्यास करके दिखाएँ.

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

हे देवि ! छंद के नियम बनाए क्यूँकर?

शीघ्र ही 'पाठशाला' फिर से शुरू होने वाली है. विषय होगा 'छंद चर्चा'. 

छंद के महात्म्य को पुनः स्थापित करने की मन में जो भावना प्रकट हुई,  वह अकारण नहीं हुई.
— पहला कारण, काव्य के आधुनिक रूप के प्रति मेरा प्रसुप्त आक्रोश.
— दूसरा कारण, मैं उन तम्बुओं को उखाड़ने का सदा से हिमायती रहा हूँ, साहित्य जगत में जिनके बम्बू केवल इसलिये गड़े कि वे कुछ अधिक गहरे दिखायी दें. 'टोली प्रयास' रूप में अपनी अलग पहचान कोशिशें और कविता को तरह-तरह के वादों में बाँटकर ये बम्बू उसे आज एक ऎसी दुर्दशा तक ले आये हैं जहाँ वह फूहड़ मनोरंजन के रूप में ही अधिक पहचानी जाती है. 
जब किसी क्षेत्र का कोई नियम टूटता है और उसकी सराहना करने वालों की तादात अधिक होती है .. तब उस क्षेत्र में अराजकता शीघ्र फ़ैल जाती है.

कविता के क्षेत्र में भी छंद-बंधन टूटते जा रहे हैं. यह टूटन कहाँ तक उचित है इस विषय पर आगे विचार जरूर करेंगे. आज ब्लॉगजगत में डॉ. रूपचंद शास्त्री 'मयंक' एवं श्री राजेन्द्र जी 'स्वर्णकार' छंद-नियमों को मानकर न केवल रचना कर रहे हैं अपितु छंद को प्रोत्साहन भी दे रहे हैं. पिछले दिनों दोहों के वर्गीकरण पर श्रीमती अजित गुप्ता जी की एक सुन्दर पोस्ट देखने में आयी थी. छंद-ज्ञान प्रचार में उनका योगदान भी मुझे हर्षित कर गया. 

बहरहाल, छंद-चर्चा पर पाठशाला पुनः खोलने का अमित अनुरोध आया तो मैं अपने मन की इच्छा को छिपाकर न रख सका. बस कभी-कभी यह आभास होता है कि मेरा सीमित प्रयास निरर्थक सा है इस कारण ही बीच-बीच में उदासीन हो जाता हूँ. वैसे कुछ अन्य कारण भी बन आते हैं उदासीन होने के, लेकिन सुज्ञ जी जैसे विचारक मुझे संभाल लेते हैं. संजय झा हमेशा अपनी उपस्थिति से यह एहसास कराते हैं कि क्लास पूरी तरह से खाली नहीं है.

एक बार फिर से कहना चाहता हूँ कि मैं 'विषय का पंडित' नहीं हूँ लेकिन फिर भी मुझे 'निरंतर पूछे जाने वाले प्रश्न' कुछ नया सोचने को उत्साहित करते हैं. कृपया इतनी कृपा अवश्य बनाए रखियेगा कि 'प्रश्न' सक्रीय रहें, मृत न होने पायें. 

पाठशाला शुरू करने से पहले मैं अपने आक्रोश को प्रकट कर अभी फिलहाल खाली हो जाना चाहता हूँ :  

हे देवि ! छंद के नियम बनाए क्यूँकर ?
वेदों की  छंदों में ही रचना क्यूँकर ?
किसलिये प्रतीकों में ही सब कुछ बोला ? 
किसलिये  श्लोक रचकर रहस्य ना खोला ? 

क्या मुक्त छंद में कहना कुछ वर्जित था ? 
सीधी-सपाट बातें करना वर्जित था ? 
या बुद्धि नहीं तुमने ऋषियों को दी थी ? 
अथवा लिखने की उनको ही जल्दी थी ? 

'कवि' हुये वाल्मिक देख क्रौंच-मैथुन को . 
आहत पक्षि कर गया था भावुक उनको . 
पहला-पहला तब श्लोक छंद में फूटा .
रामायण को लिख गया था जिसने लूटा .

माँ सरस्वती की कृपा मिली क्यूँ वाकू ? 
जो रहा था लगभग आधे जीवन डाकू ? 
या रामायण के लिये भी डाका डाला ? 
अथवा तुमने ही उसको कवि कर डाला ? 

हे सरस्वती, बोलो अब तो कुछ बोलो ! 
क्या अब भी ऐसा हो सकता है ? बोलो . 

अब तो कविता में भी हैं कई विधायें . 
अच्छी जो लागे राह उसी से आयें . 
अब नहीं छंद का बंध ना कोई अड़चन . 
कविता वो भी, जो है भावों की खुरचन . 

कविता का सरलीकरण नहीं है क्या ये ? 
प्रतिभा का उलटा क्षरण नहीं है क्या ये ? 

छाया रहस्य प्रगति प्रयोग और हाला. 
वादों ने कविता को वैश्या कर डाला. 
मिल गई छूट सबको बलात करने की . 
कवि को कविता से खुरापात करने की . 

यदि होता कविता का शरीर नारी-सम . 
हर कवि स्वयं को कहता उसका प्रियतम . 

'छायावादी' ... छाया में उसको लाता . 
धीरे-धीरे ... उसकी काया .. सहलाता. 
उसको आलिंगन में .. अपने लाने को . 
शब्दों का मोहक सुन्दर जाल बिछाता . 

लेकिन 'रहस्यवादी' करता सब मन का .
कविता से करता प्रश्न उसी के तन का .
अनजान बना उसके करीब कुछ जाता. 
तब पीन उरोजों का रहस्य खुलवाता . 

पर, 'प्रगतीss वादी', भोग लगा ठुकराता . 
कविता के बदले 'नयीS .. कवीता'* लाता. 
साहित्य जगत में निष्कलंक होने को . 
बेचारी कविता को ... वन्ध्या ठहराता . 

और 'प्रयोगवादी' ...  करता छेड़खानी .
कविता की कमर पकड़कर कहता 'जानीS'
करना 'इंग्लिश' अब डांस आपको होगा . 
वरना ......... मेरे कोठे पर आना होगा . 

अब तो कविता-परिभाषा बड़ी विकट है . 
खुल्लमखुल्ला कविता के साथ कपट है .
कविता कवि की कल्पना नहीं न लत है .
कविता वादों का ... नहीं कोई सम्पुट है . 

ना ही कविता मद्यप का कोई नशा है .
कविता तो रसना-हृत की मध्य दशा है .
जिसकी निःसृति कवि को वैसे ही होती . 
जैसे गर्भस्थ शिशु प्रसव ... पर होती . 

जिसकी पीड़ा जच्चा को लगे सुखद है .
कविता भी ऎसी दशा बिना सरहद है .

बुधवार, 23 मार्च 2011

मिल गयी हमारी छिपी बात

मिल गयी हमारी छिपी बात 
लज्जा से गुंठित थे कपाट. 
तेरी सखि शोधक बहुत तेज़ 
रखते तुम क्यों नज़रें सपाट?

हो सरल हृदय करुणाभिसिक्त 
दीठी सखि की है स्यात तिक्त.
पिछली कविता का भेद खोल 
कारण जाना 'मम स्नेह रिक्त'.*

बलहीन कलम कविता विहीन 
हत मीन नयन मेरी ज़मीन.
नट बने भाव आते-जाते.
जीवट पर तेरे है यकीन. 


बुधवार, 16 मार्च 2011

'दर्शन' होली

यौवन कगार पर खड़ा हुआ
प्यासा मन खेल रहा होली
सपनों से, सपने रूठ-रूठ
जाते हैं, जब आँखें खोलीं।

पलकों के अन्दर नयनों से
अंगुली खेलें काज़ल होली
अंगुष्ठ खेलता बहना का
भैया के माथे पर होली।
.

.
.
माधव .. अपनी 'श्री' से खेले
नारी ...  अपनी 'ह्री' से खेले
देवर ... भाभी जी से खेलें
औ' हम ... खेलें 'दर्शन' होली।





शनिवार, 12 मार्च 2011

स्वभाव मम सम ... पुंस कोकिल

स्वभाव मम सम ... पुंस कोकिल 
'परभृता' की ... तरह है दिल. 
'काग' के ...  घोंसले अन्दर 
छोड़ आया ... जो गया ले. 
'पल सकेंगे ... वे वहाँ पर' 
दिल यही ... संदेह पाले. 
आप हो ... 'भावज' दुलारे 
मम हृदय के ... नयन तारे. 
रख सकूँगा ... दूर तुमको 
कब तलक? — मैं सोचता हूँ.


मंगलवार, 8 मार्च 2011

मैं धनिक बन गया कर विलाप

ओ कलम! आप निज बाल-प्रिया.
बचपन से तुमसे खेल किया. 
शर छील प्रथम माँ ने तुमको 
मेरे मृदु हाथों सौंप दिया. 

पहले 'अक्षर' फिर 'शब्द' खेल 
खेले मैंने, थे आप गेल*. 
तुमने बदले हैं रूप कई 
तब से अब तक सब लिया झेल. 

तुम हो कैसा मो..हनी दंड. 
दुःख में भी आँसू बने छंद. 
तुम बाँध रही मेरे विचार 
जो अभी तलक थे खंड-खंड. 

कवि कर के ओ सुन्दर कलाप* 
शत कोटि-कोटि युग जियो आप. 
तुमने मोती कर दिये अश्रु 
मैं धनिक बन गया कर विलाप. 

___________
गेल* = साथ
कलाप = अलंकार
धनिक = धनी 



रविवार, 6 मार्च 2011

आपके घर की हवा चली

आपके घर की हवा चली 
मिली राहत हेमंत टली 
पिकानद* हल्दी अंगों पर 
लगाकर लगती है मनचली. 

शिशिर तो खेल रहा स्वच्छंद 
बहिन मुख पर मलता हैं रंग 
सभी को छूट मिली है आज़ 
फाग खेलन की हो निर्बन्ध. 

मुझे मदमत्त कर रही है 
आपको छूकर आयी पौन.
कौन आलिंगन देगा आज़ 
पिया बैठी है होकर मौन. 

सुहाता वसन आपका आज़ 
कली खिलती हैं सारी साज 
देह को, फिर से आयी लाज 
राज करता है अब ऋतुराज. 

____________
*पिकानद = बसंत ऋतु

गुरुवार, 3 मार्च 2011

बिछड़कर मिल पाया है कौन?

सुनो जाने से पहले पौन! 
हमें अब देगा श्वासें कौन?
आप यदि जावोगे इस तरह 
करेगा हमसे बातें कौन?

याद है मुझको पहली बार 
आपने सहलाये थे केश 
घटा के, जो आई थी पास 
पहनकर शिष्या की गणवेश. 

बना हैं नहीं कभी भी चित्र 
पौन, निर्गुण हो या तम, इत्र. 
धूलि ने पा तेरा आभास 
बनाया है सांकेतिक चित्र. 

कहा तुमने मुझसे इक बार 
कमी तुममें केवल है प्यार 
किया करते हो प्राची से, 
नव्य का ना करते विस्तार. 

अश्रु पलकों पर हैं तैयार 
विदा देने से पहले भार 
डालते हैं वे नयनों पर 
व्यथित मेरे सारे उदगार.

शोध करने वाली ओ पौन! 
विदा देते हैं तुमको मौन! 
मिलेंगे ना जाने फिर कहाँ? 
बिछड़कर मिल पाया है कौन?