शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

किया कवि का तुमने अपमान

अरी ओ विष कन्या नादान. 
चली वापस जा तू आपान. 
नहीं पा सकती अब तू पार. 
चाहे कर ले षोडश शृंगार. 

जबरदस्ती अधरों का पान. 
किया कवि का तुमने अपमान. 
इंदु-सी लगती, मद्य-स्नात!
बिंदु का होगा वज्राघात. 

बंदनी छीन बिंदु पी आज. 
चिता चिंता की देगी साज. 
बिंदु बोलेगी - आओ बाज 
अरी मैं ही तेरी सरताज. 

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

कभी-कभी तो मिलना होता है तुमसे उल्लास लिये


निःशब्द बोल

आये आकर चले गये तुम मुझसे बिन कुछ बात किये. 
मैं तो सोच रहा था बोलूँ पर तुम ही थे मौन पिये! 
शब्द नहीं थे मुख में मेरे फिर भी तुमसे बोल दिये. 
'पियो पिये' संकेत किया मैंने पय पीने के लिये. 
नहीं तुम्हें इतनी आशा थी मुझसे मैं कुछ बोलूँगा. 
इसीलिए मुख फेर लिया पहले से ही आभास लिये. 
रही सदा मुझ पर निराशता* तुमको देने के लिये. 
आज़ स्वयं देने को सब कुछ बैठा हूँ अफ़सोस किये. 
सोच रहा अब तक मैं कैसे था बिन प्राणों के जिये. 
कभी-कभी तो मिलना होता है तुमसे उल्लास लिये. 


सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

काव्यशास्त्री से विमर्श


आचार्य परशुराम जी ने 'मनोज' नामक ब्लॉग पर काव्यशास्त्रीय चर्चा में वीर और रौद्र रस का विशद वर्णन किया. http://manojiofs.blogspot.com/2011/02/52.html 


मन की जिज्ञासा थी कि किसी काव्यशास्त्री से पूछूँ कि निम्न पंक्तियों में रस कौन-सा है? 

"है परशुराम से पायी मैंने शिक्षा
इसलिये मातृ वध की होती है इच्छा.
जब-जब माता जमदग्नि पूत छलेगी
मेरी जिह्वा परशु का काम करेगी."
आचार्य जी, यहाँ मातृ-वध में कौन-सा रस है?
वीर अथवा रौद्र अथवा कोई रस का आभास? 

आचार्य जी ने प्रतिउत्तर दिया : 
"भगवान परशुराम द्वारा मातृ-वध क्रोधवश नहीं किया गया था, अपितु पित्रादेशवश। क्योंकि जब पिता ने वर माँगने के लिए कहा तो उन्होंने वर माँगा था कि माँ जीवित हो जाय ओर उक्त घटना उन्हें याद न रहे।
अतएव इसे वीर रस (धर्मवीर) का उदाहरण कहना चाहिए।

मुझे कभी किसी काव्यशास्त्री से विमर्श का अवसर नहीं मिला, सो डरते-डरते पूछा है...
आचार्य परशुराम जी, कृपया मुझे कुतर्की न मानना और न ही अहंकारी, मैं केवल जिज्ञासु हूँ. 
क्षमा भाव के साथ कहना चाहता हूँ — 
आचार्य जी, 'उत्साह' वाले स्थायी भाव से 'विस्मय' जन्म लेता है और वीर से अदभुत रस उत्पादित होता है. 
क्या मातृ-वध में 'उत्साह' स्थायी भाव माना जाये? आपने इस कृत्य को धर्मवीर की श्रेणी बताया. 
लेकिन शास्त्रीय नियमों के अनुसार यह उदाहरण अपवाद बन गया है. 
क्रोध के बिना वध संभव नहीं हो पाता बेशक वह धर्म-युद्ध में किये गये वध हों. 
मुझे यहाँ रौद्र रसाभास लगता है. क्या ऐसा नहीं है? 



— : रसाभास : —

जहाँ रस आलंबन में वास 
करे उक्ति अनुचित अनायास 
जसे परकीया में रति आस. 
हुवे उक्ति शृंगार रसाभास. 

अबल सज्जन-वध में उत्साह 
अधम में करना शम-प्रवाह. 
पूज्यजन के प्रति करना क्रोध 
विरक्त संन्यासी में फल चाह. 

वीर उत्तम व्यक्ति में भय 
जादू आदि में हो विस्मय. 
बलि में हो बीभत्स का हास 
वहाँ होता रस का आभास. 

रसाभास — रसाभास की स्थिति वहाँ आ जाती है जहाँ पर किसी रस के आलंबन या आश्रय में अनौचित्य का समावेश हो जाता है. यदि कसी व्यक्ति में निर्बल या साधु संतों के वध में उत्साह की योजना की जाती है तो वहाँ वीर रस न होकर रसाभास होगा क्योंकि रस के समस्त अवयवों के कारण उक्ति रसात्मक तो हो जायेगी किन्तु उसमें अनौचित्य आ जाने के कारण तीव्रता में कमी आ जायेगी. इसी प्रकार नायिका में उपनायक या किसी अन्य पुरुष के प्रति अनुराग की अनुभूति या गुरुपत्नी, देवी, बहिन, पुत्री आदि के प्रति रति का वर्णन शृंगार रस के अंतर्गत नहीं आ पायेगा. इसी परकार अन्य रसों के संबंध में भी जानना चाहिए. विरक्त या संन्यासी में शोक का होना दिखाया जाना, पूज्य व्यक्तियों के प्रति क्रोध व्यक्त करना, उत्तम एवं वीर व्यक्ति में भय का निदर्शन, बलि आदि में बीभत्स का चित्रण, जादू आदि में विस्मय का चित्रण, और नीच व्यक्ति में निर्वेद का वर्णन आदि क्रमशः करुण रसाभास, रौद्र रसाभास, भयानक रसाभास, बीभत्स रसाभास, अदभुत रसाभास और शांत रसाभास होगा. 

भावाभास — किसी भाव में अनौचित्यपूर्ण वर्णन में भावध्वनि न होकर भावाभास आ जाता है. विश्वनाथ ने किसी वेश्या आदि में लज्जाभाव के चित्रण को भावाभास माना है. रसवादी आचार्यों का स्पष्ट अभिमत है कि इस प्रक्रिया में अनैतिकता, अस्वभाविकता, अव्यावहारिकता आ जाने से अथवा अपूर्णता के कारण रस, रस नहीं रह जाता बल्कि वह रसाभास हो जाता है और इसी प्रकार उस स्थिति में कोई भाव, भाव न रहकर भावाभास हो जाता है. 

प्राचीन आचार्यों का मानना था कि अनौचित्य के कारण आस्वादन के समय भाव का सुखद आस्वादन नहीं हो पाता और भावाभिव्यक्ति भाव का आभास मात्र करवाकर शांत हो जाती है. कुछ स्थलों पर तो वह घृणित उक्ति बन जाती है. कुछ इसे काव्यशास्त्रियों ने ही नहीं, बल्कि सृजनशील कलाकारों ने भी हृदय से स्वीकार किया है. 






— : वीर रस और रौद्र रस में अंतर : —

उत्साह वीर का संबंधी
औ' क्रोध रौद्र का है बंदी. 
बंदी अनिष्टकारी होता 
औ' वीर नहीं करता संधी*. 

उत्साह उमंग में झूम-झूम 
बढ़ता जाता मंदी-मंदी. 
है लक्ष्य सफलता का लेकिन 
कर क्रोध हुई मेधा अंधी. 






रविवार, 6 फ़रवरी 2011

शारद-हंस


चाहता हूँ आपस में आप 
पास आकर दोनों मिल जाओ.
अरे! तुम रंग रूप से नयी 
विश्व को शीतलता पहुँचाओ. 

निशा के सुन लो कर-भरतार 
दिवाकर को करना लाचार. 
आप से लेकर शीतल प्यार 
उष्णता का कर दे परिहार. 

मिलो तो लागे नया बसंत 
बिछड़ जावो तो भी दुःख अंत 
हुवे, लौटे मुख पर मुस्कान 
देख तुमको खिल जावें दंत. 

सुन्दरी लगने लागे लाज 
राजने लागे सर अवतंस. 
नष्ट होवे मानस का क्रोध 
तैरने आवे शारद-हंस. 



कवि कोटियाँ - 4

रचना की मौलिकता कि आधार पर कवि के चार भेद हैं : 
१] उत्पादक कवि — अपनी नवीन उदभावना के आधार पर मौलिक रचना प्रस्तुत करता है. 
२] परिवर्तक कवि — दूसरे कवियों की रचना में कुछ उलटफेर करके अपनी छाप डाल उसे अपनी रचना बना लेता है. 
३] आच्छादक कवि — कुछ साधारण हेर-फेर से ही दूसरों की रचना छिपाकर उसे अपनी ही कहकर प्रसिद्ध कर देता है. 
४] संवर्गक कवि — प्रकट रूप से खुल्लमखुल्ला दूसरे के काव्य को अपना कहकर प्रकाशित करता है. 

इन कवियों में वास्तव में उत्पादक को ही कवि मानना चाहिए, अन्य तो नकलची, चोर या डाकू हैं, कवि नहीं.  

फिलहाल इतना ही, अन्य भेद अगले अध्याय में ...

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

चिंता


हे चपल बालिके !  मस्तक पर 
आकर क्यों टेढ़ी चाल चलो? 
क्यों निज रसमय अभिशापों से 
वृद्धावस्था का जाल बुनो?

हे व्याल प्रिये ! डस छोड़ दिया. 
तुमने तन में विष घोल दिया. 
यादों के दुर्दिन द्वारों को 
क्यों निर्मम होकर खोल दिया? 

अरी भ्रू मध्य ठहरी रेखा ! 
अप्सरा रूप तुममें देखा. 
तुमने आशा बनकर, मुझको 
ठग लिया, छली, मिथ्या लेखा ! 

[इस बार केवल कविता, चिंता के कारण कुछ सूझ नहीं रहा.]