बुधवार, 3 नवंबर 2010

मुस्कान मिष्टिका


कैसी लगी मिठायी चखकर
हमको ज़रा बताओ तो
लेकर अधरों पर हलकी
मुस्कान मिष्टिका लाओ तो. 

बहुत दिनों से था निराश मन
आस नहीं थी मिलने की.
लेकिन फिर भी मिला, मिलन
तैयारी में था जलने की. 

आप प्रेम से बोले — "सबसे
अच्छी लगी मिठायी यह".
यही श्रोत की थी चाहत
पूरी कर दी पिक नाद सह. 

मुरझाया था ह्रदय-सुमन 
खिल उठा आपका नेह लिये. 
बैठ गये खुद सुमन बिछाकर 
तितली से, सब स्वाद लिये. 

दीप जलाकर मेट रहा था 
ह्रदय-भवन की गहन अमा. 
किन्तु चाँदनी स्वयं द्वार पर 
आयी बनकर प्रिय...तमा.