मंगलवार, 20 जुलाई 2010

दीप-सत्ता आयेगी

निश्चित निकलकर
कुछ समय के बाद मेरे कंठ से
निज चित्त की अतृप्तियों को
तृप्त कर पहनाएगी.
वातगामी वाणिनी,
स्वरों के भुजपाश को.
................... वाग्दत्ता आयेगी.

भविष्य की प्रतीक्षा में
स्नात होते वाक्-पथ.
नेह-पुष्प-वाटिका में
रुक गए हैं काम-रथ.
औ' लग गयी हैं पास-पास
स्वरों की सत-फट्टीयाँ.
दिक् दर्शिका के नाम से
दिखायेंगी आकाश को.
................... दीप-सत्ता आयेगी.

[*अमित जी! अर्थ नहीं बताउँगा, बताया तो अन-अर्थ हो जाएगा.
अनायास डॉ. अमर जी स्मृति भी हो आयी, मंगलवार जो है. उन्होंने मंगल का दिन चुना है काव्य-रस पान के लिये. ]