शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

कंठ में बाँध रहा हूँ पाश

ह्रदय के कोमल भावों पर
लगाता हूँ फिर से प्रतिबंध.
कंठ में बाँध रहा हूँ पाश
कहीं न फैले नेह की गंध.

किया जब तक तेरा गुणगान
बढ़ाया तुमने मेरा मान.
उलाहना क्यों देते हो अब
किया करते हो क्यों अपमान?

आपसे भी सुन्दर गुणवान
किया करते मुझसे पहचान
दूर कैसे कर दूँ उनको
गाऊँ न क्यों उनका गुणगान?

आप ही न केवल बलवान
रूप, गुण-रत्नों की हो खान.
किया करता सबका सम्मान
सभी लगते मुझको भगवान्.

[ओ प्यारी! प्रेम को आपने समझा नहीं, सो अब मैं फिर से कोमलतम भावों पर प्रतिबंध लगाता हूँ और अपना समग्र माधुर्य कंठ के भीतर ही छिपा रखूँगा, वह भी एक फंदा लगाकर, जिससे उसकी गंध भी बाहर ना आये.]
[ओ प्यारी! जब तक मैं आपके साथ काव्य-सृजन में लगा रहा आप मुझे सम्मान देते रहे, (लेकिन अब यह क्या, मैंने बेड परि-इच्छाओं से नेह क्या किया, आपने मेरे चरित्र पर ही उँगली उठाना शुरू कर दिया, कभी घनानंद के एकनिष्ठ प्रेम की दुहाई देकर, तो कभी स्वयं को द्रोपदी और मेरे क्षणिक प्रेम को उलूपी/सुभद्रा के पार्थीय प्रेम समान अनुभूत कराकर उसे एक प्रकार-से वासनामयी ठहराया.)  आपका ये उलाहना मेरा अपमान ही तो है.] **
[सुनो प्यारी, इस साहित्य जगत में केवल आप ही गुनी नहीं हो, कई और भी है, जो मुझसे पहचान बढ़ाने को उतावले रहते हैं. उन सबको कैसे विस्मृत कर सकता हूँ. मैं उनका गुणगान, उनका बखान क्यों ना गाऊँ. (आपको जलन होती है तो जलो).] 
[प्यारी! आप गुनी हो, रूपवती हो, आप द्वारा सृजित विचार बहुमूल्य होते हैं. फिर भी मैं सभी लेखनियों का सम्मान करता हूँ और सभी में उस ईश्वरीय प्रेरणा का अंश मानता हूँ. इस कारण मुझे सभी ईश्वर लगते हैं.]

{** वैसे अमित जी ने कलम पक्ष से जो बातें रखीं वे कलम-कुल को जीवंत कर रही हैं. उन्होंने मेरी प्यारी की ओर से जो त्यागमयी भाषा बोली, वह प्रशंसनीय है. बाद में तो मसि-सहेली ने एकाकार होने की बात कहकर मन जीत लिया. लेकिन क्रोधवश बाद की बातों पर देर से ध्यान गया. सच हैं कि क्रोध में संतुलन बिगड़ जाता है. हे अमित जी, क्षमा चाहता हूँ, आपने कलम-पक्ष को तो सही से रखा लेकिन मेरा पक्ष बलहीन होकर खड़ा नहीं रह पाया. सो क्रोध को प्रभावी बना दिया. यह एक तरीका है अपनी कमजोरियों को छिपाने का.}