रविवार, 16 मई 2010

ढाल [चित्र काव्य]

हले से ही दिखी भवन में
ती अमा अरे! चुपचाप.
होली खेल रहा था छिपकर
तेल जला तम से दिव-ताप.
त थे दोनों नयन नुकीले
तलाओ थे कौन कलाप.
ज्जू बिना छूटे आहत कर
काजलमय हृत, करे विलाप
ला वह चाप कौन-सी है, यदि
कलाकार बनते हो आप.

[यह कविता 'ढाल' नामक चित्र काव्य का उदाहरण है. खोजिये, कैसे?]

नयन-मर्यादा

ओ दूर-दूर रहने वाले! हमसे भी दो बातें कर लो.
इतना दूर नहीं रहते जो मिलने में भी मुश्किल हो.
मौन बहुत रहते हो, दूरी पहले से, ये चुप छोड़ो.
कभी-कभी तो आते हैं, मिलते हैं. हमसे हँस बोलो.
जितना आते पास तिहारे उतना नयन झुकाते हो.
लज्जा है ये नहीं तुम्हारी, फिर भी तुम शरमाते हो.
बोल रही प्राची से नूतन, सब बातों से अवगत हो.
'मर्यादा में भी कहते हैं नयन किसी हद तक नत हों.'