मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

परिवर्तन है या पतन-परा?

मैं हूँ अपराधी बहुत बड़ा
मैं हूँ अपराधी बहुत बड़ा.
निर्लज लज्जा लुटने को थी
मैं देख रहा था खड़ा-खड़ा.


आँखों में आँसू नहीं कहीं
था उनमें इक आश्चर्य भरा.
आ रही स्वयं लज्जा लुटने
परिवर्तन है या पतन-परा?



आँखें मरने को हैं तत्पर
इक शील-भंग की घटना पर.
जो रहीं अभी तक मर्यादित
इक भूल हुई धोखा खाकर.


इक सुन्दर पुरुष देख मैंने
दूरी पर खड़े हुए सोचा.
क्या सुन्दरता पायी इसने
क्या वक्षस्थल पाया चौड़ा.


आया समीप दर्शन करने
'छाती खोलो, देखूँ' कहने.
था भेष पुरुष, नारी उसमें
हा! बड़ अपराध किया मैंने.



वो हँसी देख मेरी हालत
बोली — 'परिवर्तन जीवन है,
तुम अभी तलक अनजान रहे
बेकार तुम्हारा यौवन है."


सचमुच पाया मैंने खुद को
अपराधी मूरख बहुत बड़ा.
दण्डित आँखों को करूँ फोड़,
या करूँ ह्रदय को और कड़ा.


लज्जा परिभाषा बदल गयी
बदली नारी की परिभाषा
अब समझ नहीं आती मुझको
लज्जा की मौनमयी भाषा.


जब परिवर्तन ही जीवन है
तो बदले क्यूँ ना परिभाषा.
मंडूक-कूप मन यथारूप
की लगा रहा अब भी आशा.


[इसमें एक नूतन अलंकार "श्येन भ्रम अलंकार" है, व्याखा और परिभाषा वर्ष-दो वर्ष बाद एक नए ब्लॉग "काव्य-प्रतुल" में दिए जायेंगे. तब तक नवीन अलंकारों का रसास्वादन करने के लिए आपको थोड़े दिवसों के अंतराल पर नवीन रचनाओं को दिया जाएगा. आप टिप्पणी देखर मेरा प्रोत्साहन बढ़ा सकते हैं. मुझे तो यह भी पता नहीं कि इस ब्लॉग को कोई पढता है या नहीं.]