मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

मान्यताओं को बदलने का साहस मुझमें नहीं!

निद्रा — मेरा असमय आना द्वारपाल के लिए बुरा है. मेरा अधिक आना विद्यार्थी के लिए दोष है, ब्रह्मचर्य का नाशक है. मेरा कम आना रोगी के लिए दुःखदायक है. किन्तु, मेरा शैशव के प्रति स्नेह सभी को भाता है. क्यों? क्या मैं मात्र शिशुओं के प्रेम की अधिकारिणी हूँ? क्या मैं मैं किसी पवित्र ह्रदय वाले स्वस्थ पुरुष से प्रेमिकावत प्रेम ना पा सकूंगी?
नेपथ्य से आवाज — अवश्य पा सकोगी देवि!
निद्रा — तुम कौन?
नेपथ से आवाज — मैं स्वप्न. तुम्हारी इस अकस्मात् चिंता का कारण, देवि! क्या मेरा प्रेम आपको पर्याप्त नहीं या मेरे प्रेम पर तुम्हें संदेह है?
निद्रा — निःसंदेह तुम मुझसे प्रेम करते हो. किन्तु...
स्वप्न — 'किन्तु' क्या? निद्रे!
निद्रा — हे स्वप्न! तुम अमैथुनीय सृष्टि का एक सुन्दर उदाहरण हो. पर लोगों की मान्यता को बदलने कि मुझमें सामर्थ्य नहीं. लोग आज भी तुम्हें मेरे द्वारा उत्पन्न मानते हैं.

(किसी की भी मान्यताओं को बदलना सहज नहीं.)