सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

खोखली धारणा

जिसके अर्चन में दिवस रात
रहती थीं निज आँखें सनाथ
जिसके आँचल में बैठ मुझे
मिलता था ईहित प्यार-मात।

जिसके दर्शन से नयन धन्य
समझा करता खोले कपाट
जिसके चलने पर ऊंच-नीच
पथ को करता था मैं सपाट।

जिसके नर्तन पर कभी-कभी
कवि उर में आ जाता भुचाल*
कविता बेचारी इधर-उधर
मारी फिरती जिह्वा संभाल।

खोखली धारणा थी मेरी
कुछ ही पल का था प्रिय मिलाप
जब से मिलकर वे दूर हुए
आँखें करती रहतीं विलाप।
* भूचाल