मंगलवार, 12 जनवरी 2010

चरमर कर चलती है गाड़ी

भरी... परन्तु भरी जा रही
ला लाकर के और सवारी.
नहीं खिंच रही खींच रहा है
जान लगाकर वृषभ अगाड़ी.
चली कदम दो कदम, रुकी फिर
चली पुनः रुक-रूककर गाड़ी.
'अरे! चलावो तेज़ ज़रा' --
आती पीछे आवाज़ करारी.
वृषभ देह पर दीख रही है.
खिली अस्थियों की फुलवारी.
भ्रमर-कशा गुंजन-सटाक ध्वनि
करता गूम रहा व्यभिचारी.
क्षुधा-वृषभ पिय नित्य बैठने
आया करती है फुलवारी.
मिलन-कुशा कि बातें करके
मिल जाती निज देह पसारी.
फिर आयी है क्षुधा मिलन को
आस लिए अब चौथी बारी.
'लौट चली जावो' कहता है
'क्षुधे अरी ओ मेरी प्यारी!'
'पित ने मेरा लालचवश कर
दिया मृत्यु से अब रिश्ता री!
तुम निर्धन हो निम्न वर्ण की
वो यम कि संपन्न सुता री!'

बड़बड़ करती रही सवारी.
चरमर कर चलती है गाड़ी.

(आधुनिकतम लो-फ्लोर बसों को समर्पित)